Friday, 10 April 2015

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लोहित के मानसपुत्र - शंकरदेव


लोहित के मानसपुत्र : शंकरदेव

(असम के भक्तिकालीन सन्तकवि की जीवनगाथा)



लेखक : सांवरमल सांगानेरिया




प्रकाशक :

हेरिटेज फाउण्डेशन 

के.बी.रोड, पल्टन बाजार, 

गुवाहाटी-७८१ ००८ (असम) 

चलभाष : ०९७०७० ८५२३५ 

दूरभाष : ०३६१-२६३६३६५ 

इ-मेल : ourheritage123@yahoo.com 

वेब साइट : www.heritagefoundation.org.in 

मूल्य : 300 रुपये 





यह पुस्तक असम की जनता को

सादर समर्पित

जिसके हृदय में महापुरुष शंकरदेव बसे हैं,

इस आशा के साथ कि राष्ट्रभाषा के माध्यम से

इस राष्ट्रीय सन्तकवि को

भारत का जन-जन भी जान सकेगा ।

- सांवरमल सांगानेारिया



श्रीमती इन्दिरा गोस्वामी (मामोनी रायसम) द्वारा लिखित प्रस्तावना

श्रीमन्त शंकरदेव पर श्रीसांवरमल सांगानेारिया द्वारा लिखा यह ग्रन्थ पढ़कर मैं अति आनन्दित हुई। श्रीसांवरमल ने इसे लिखने के लिए बहुत गम्भीरता से श्रीशंकरदेव के जीवन और साहित्य का अध्ययन किया है।

असमिया संस्कृति को संवारने व उसे पराकाष्ठा पर ले जाने में श्रीमन्त शंकरदेव की सबसे बड़ी भूमिका रही है। वे मात्र वैष्णव सन्त ही नहीं, अपितु गीत, संगीत, गायन, वादन, नृत्य, नाटक, अभिनय, चित्रकरी, वयन आदि विभिन्न ललित कलाओं के अनुपम शिल्पी भी थे। उन्होंने पाखण्ड, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास, जातिभेद, बलिप्रथा और वामाचार में खोये असमवासियों में धर्म की वास्तविक शुचिता, सहजता, करुणा आदि मानवीय गुणों से नव चेतना विकसित करने का क्रान्तिकारी कार्य किया। संस्कृत के उद्भट विद्वान होने के उपरान्त भी उन्होंने अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम असमिया को ही बनाकर इसमें विपुल वैष्णव साहित्य की रचना की।

श्रीशंकरदेव के सोच की व्यापकता ही तो थी जो आज से पाँच सौ वर्ष पहले उन्होंने भारत को जोड़ने के लिए एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता को न केवल समझा, अपितु असमिया, मैथिली आदि भाषाओं को मिश्रित कर एक नई "ब्रजबुलि” या "ब्रजावली” सृजित कर उसमें अनेक गीत और नाटक लिखे। उन्होंने सहज-सरल गीतों-नाटकों के माध्यम से जनसाधारण के समक्ष आध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित किया। यह भी सुना जाता है कि उनके गीत सुनकर हिमालय के कुछ भक्त असम आये थे। कारण वे गीत समूह ब्रजबुलि में रचे गये थे।

श्रीशंकरदेव द्वारा असमिया समाज में की गई सामाजिक क्रान्ति के लिए उन्हें कई बार सामाजिक एवं राजकीय प्रताड़नाएँ भी सहनी पहीं। उनके जँवाई हरि की हत्या कर दी गई। उनके प्रिय शिष्य माधवदेव को अनेक मास करागार में रहना पड़ा। वे स्वयं भी एक जगह स्थाई तौर पर नहीं रह पाये। फिर भी वे जीवन के अन्तिम क्षण तक लोककल्याण और रचनाकार्य में रत रहे।

यह सच है कि हिन्दी भाषा में श्रीमन्त शंकरदेव के विषय में विशेष लिखा न होने के कारण ये हिन्दी, बल्कि असमिया-इतरभाषी समाज में अपेक्षाकृत कम ज्ञात हैं। इस महापुरुष पर हिन्दी में विस्तृत पुस्तक उपलब्ध नहीं होने के कारण कबीरदास, नानकदेव, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु की तरह इनकी अखिल भारतीय प्रसिद्धि नहीं हो सकी।

मैं सन् १९७० में वृन्दावन में रामायण पर शोध कर रही थी। उस समय प्रख्यात पण्डित आर.जी. भण्डारकर के ग्रन्थ Vaishnvism, Savism and Minor Religious System पढ़ने की बात याद आ रही है, जिसमें भारत के छोटे-बड़े अनेक धर्म प्रचारकों के बारे में भी विविध बातें लिखी हुई हैं, किन्तु इसमें महापुरुष श्रीमंतशंकरदेव का नाम तक न होने पर मुझे बहुत आघात लगा।

मेरी जानकरी में प्रथम बार फादर कामिल बुल्के साहब ने अपने प्रख्यात ग्रन्थ "रामकथा” में श्रीशंकरदेव को हिन्दी साहित्य जगत से परिचित कराया। "रामकथा” नामक इस अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ में श्रीशंकरदेव के "रामविजय” नाटक और "उत्तराकाण्ड” रामायण के विषय में उल्लेख है। फादर कामिल बुल्के का यह ग्रन्थ प्रयाग विश्वाविद्यालय से सन् १९६२ में प्रकाशित हुआ था।

हिन्दी जगत में श्रीमन्त शंकरदेव को परिचित कराने में श्रीसांवरमल सांगानेारिया द्वारा लिखित उपन्यासोसम रोचक, विस्तृत सूचनाओं से समृद्ध यह ग्रन्थ "लोहित के मानसपुत्र : शंकरदेव" महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने में पूर्णत: सक्षम है। इसके पहले भी असम में ही पले-पढ़े श्रीसांगानेारिया डांगरिया (महोदय) ने पूर्वोत्तर पर साहित्य रचनाएँ कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने के साथ-साथ अपनी जन्मभूमि असम की कीर्ति को भारतीय जनमानस तक पहुँचाने क स्तुत्य कार्य किया है। मैं श्रीसांवरमल डांगारिया का अभिनन्दन और धन्यवाद करती हूँ।

बैशाख बिहू, असमिया नूतन वर्ष १४१७


१५ अप्रै
२०१०

लेखक का आत्मकथ्य

महात्मा गाँधी जब विलायत से बैरिस्ट्री कर भारत लौटे थे तब उनका एक आलेख "हिन्द स्वराज” में छपा था। इसमें उन्होंने बिना जानकरी के लिख दिया कि असम के लोगों की अपनी कोई सांस्कृतिक परम्परा नहीं है। ये लोग भील हैं और पिण्डारियों की भाँति ठगी कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। गाँधीजी जब अगस्त, १९२१ में पहली बार असम आये तो उनकी इस भूल धारणा को दूर करने के लिए असम के प्रबुद्धजन तरुणराम फूकन, हेमचन्द्र गोस्वामी, नवीनचन्द्र बरदलै, चन्द्रनाथ शर्मा, पण्डित कालिराम मेधी, बाणिकान्त काकोती आदि उनसे मिले और असम की सांस्कृतिक विरासत के बारे में उन्हें बताया। असम के अतीत के बारे में बताने के लिए उन्हें महापुरुष शंकरदेव रचित कीर्तन-घोषा, भागवत आदि ग्रन्थों के साथ माधवदेव कृत नामघोषा, माधव कन्दली रचित रामायण, राम सरस्वती की लिखी महाभारत, भट्टदेव की असमिया गीता आदि ग्रन्थ भेंट किये गये। असम के द्वारका और हस्तिनापुर के साथ रहे पौराणिक रक्त-सम्बन्धों के बारे में उन्हें बताया गया। यह सब जानकर गाँधीजी ने उक्त लेख में लिखी बातों को अपनी "हिमालियन ब्लण्डर” बताया और आगे एक लेख लिखकर अपनी भूल को सुधारा।

कमोबेश यही मानसिकता देशवासियों के मन में असम या कहना चाहिये कि पूरे पूर्वात्तर के बारे में, आज भी बनी हुई है। यहाँ आने से लोग झिझकते हैं। एक अज्ञात भय उनके मन में समाया है। असम की भौगोलिक विषमता और यहाँ के प्रति रही अज्ञानता ही इस भय का कारण है। स्वतन्त्रता के बाद यहाँ पनपे अलगाववाद के कारण भी लोग यहाँ आने से कतराते हैं। इससे यहाँ के बारे में लोगों के मन में भ्रम क अँधियारा छाया है।

ऐसी परिस्थिति में देशवासी असम के भक्तिकालिन सन्त श्रीमन्त शंकरदेव के बारे में कैसे जान पाते। पूरा देश इनके बारे में लगभग अनभिज्ञ है या बहुत थोड़ा जानता है। भारतवर्ष के आध्यात्मिक जगत में आदिशंकराचार्य के उपरान्त इतिहास के मध्यकल में भक्ति आन्दोलन खड़ा हुआ। चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में भक्ति की अलख जगानेवाले स्वामी रामानन्द, कबीर, रैदास, नामदेव, गुरु नानकदेव, नरसी मेहता, वल्लभाचार्य, सूरदास, तुलसी, मीरा, चैतन्य महाप्रभु आदि सन्तों के समकालीन ही पूर्वोत्तर दिशा में भी सूर्य की भाँति जाज्वल्यमान एक सन्त शिरोमणि ने जन्म लिया, जिनका नाम है- महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव।

महामहिम शंकरदेव को संस्कृति-पुरुष कहना ज्यादा समीचीन होगा। एक में अनेक गुणों के सामंजस्य का नाम श्रीमन्त शंकरदेव है। वे केवल धर्म-प्रतिष्ठापक सन्त ही नहीं थे और न ही उनकी आध्यात्मिकता केवल धर्म मात्र से ही जुड़ी थी। वे चिन्तक, दार्शनिक, शास्त्र मर्मज्ञ, समाज-संस्कारक, मानवतावादी, कवि, संगीतज्ञ, नाटककार, नर्तक, चित्रकार, अभिनेता, गीतिकर, गायक-वादक, निर्देशक, मंच-व्यवस्थापक आदि के अतिरिक्त वयन-विशेषज्ञ भी थे। अपने में निहित बहुमुखी प्रतिभा को उन्होंने जन साधारण के कल्याणार्थ समर्पित कर दिया। तभी तो उनके पट शिष्य माधवदेव ने "जय गुरुशंकर सर्वगुणाकर” कहकर उनके सम्मान में गुरु-भटिमा (स्तुति) लिखी।

शंकरदेव द्वारा परिकल्पित शास्त्रीय रीति से सत्रों में प्रचलित किया गया नृत्य आज "सत्रिया नृत्य” के नाम से जाना जाता है। इस नृत्य विधा को "राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादेमी” ने शास्त्रीय नृत्य की मर्यादा प्रदान की है। इसी तरह उनके द्वारा बनवाया गया वृन्दावनी वस्त्र उनकी वयन कला का अनुपम उदाहरण है। इसका कुछ भाग आज भी लन्दन-म्यूजियम में देखा जा सकता है।

असम (तब का कामरूप) के तत्कालीन समाज को पुरोहित-पन्थी बाह्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए भारतीय दर्शन और आध्यात्म को शंकरदेव द्वारा लोकभाषा में प्रस्तुत किया जाना उनकी लोक संस्कार-वृत्ति का अंग ही तो था। उन्होंने सामाजिक संगठन का साधन अपनी श्रीकृष्ण-भक्ति को बनाया। उनके समय असम में शाक्तों में पशुबलि के साथ नरबलि का भी जोर था। मन्दिरों में देवदासी प्रथा चल रही थी। पंच मकार साधना, वज्रयानी सिद्धों द्वारा की गई गुह्य-साधना से प्राप्त सिद्धियों द्वारा लोगों को चमत्कृत कर साधारण जन को धर्म तत्त्व से दूर रखा जा रहा था। ऐसी विषम परिस्थितियों में बहुदेववाद और कर्मकाण्ड में फँसे, पुरोहितों के हाथों में जकड़े असमिया समाज को शंकरदेव ने "एक देव, एक सेव, एक बिने नाही केव" कहकर श्रीकृष्ण को ही एकमात्र देव मानकर वैष्णव पन्थ पर चलने के लिए "एकशरण नामधर्म" या "एकशरणिया धर्म" की राह दिखाई। उनके समक्ष राम केवल अवतार हैं, परन्तु श्रीकृष्ण सर्वगुण सम्पन्न परमेश्वर। कालान्तर में यही एकदेववाद "एक शरणिया धर्म" के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।

शंकरदेव केवल आध्यात्मिक और धार्मिक प्रचार में ही व्यस्त नहीं थे, अपितु उन्होंने भेदभावहीन समाज का पुनर्गठन कर सभी स्तर के लोगों को एक सूत्र में पिरोकर वृहद् समाज की स्थापना की। यह उनके चिन्तन और कार्यान्वयन का ही प्रभाव है कि आज असमिया समाज में कोई छुआछूत या जातिभेद देखने को नहीं मिलता। तभी तो अपने असम-प्रवास के समय यह बात जानकर गाँधीजी ने अचम्भित होते हुए कहा था कि अस्पृश्यता के जिस कोढ़ को समाज से मिटाने के लिए मैं प्रयासरत हूँ, वह पहले से ही श्रीमन्त शंकरदेव ने असमिया समाज से मिटा दिया।

आज के मेघालय, नगालैण्ड, मिजौरम कल तक असम के जिले मात्र हुआ करते थे। हमारे राजनेताओं की गलतियों से पहाड़ों-वनों में बसने वाले लोगों में पनपे असन्तोष के कारण असम का विभाजन हुआ। किन्तु शंकरदेव ने लोहित (ब्रह्मपुत्र) घाटी में बसे लोगों के साथ पहाड़ों पर बसी जनजातियों को भी अपने नामधर्म से जोड़ा था। उनके शिष्यों में गारो गोविन्द आता, नगा नरोत्तम आता, केवर्त जयहरि आता, मिसिंग परमानन्द, आहोम नरहरि, जयन्तिया के माधव, भूटान के जयराम के साथ मुसलमान चान्दसाई का भी समावेश है। इन सबके अतिरिक्त भी (आज के अरुणाचल की) कई डफला (आज के न्यिशी), आदी, नोक़्ते आदि जनजातीय लोगों ने हरि नाम की महिमा को समझा था। नगालैण्ड की सीमा से लगे हुए अरुणाचल के क्षेत्र में आज भी वैष्णव भक्त हैं।



साधारण जनता में आपसी मेल-मिलाप बढ़ाने और "एकशरण नामधर्म" के प्रचार के लिए उन्होंने नामघरों की स्थापना की। नामघर के साथ कीर्तन घर, मणिकूट और सत्र शब्द भी जुड़े हैं। ईश्वर का जहाँ गुणगान होता है, जहाँ भजन-कीर्तन होता है उसे नामघर या कीर्तन घर कहा जाता है। नामघरों में साधारणतया मणिकूट न होकर गुरु-आसन होता है। भगवान का विग्रह जहाँ स्थापित होता है उसे मणिकूट कहा जाता है, परन्तु शंकरी परम्परा में विग्रह के स्थान पर श्रीमद्भागवत धर्मग्रन्थ रखा जाता है। नामघर और मणिकूट सहित विशाल संस्था को सत्र कहा जाता है। सत्र की चारों दीवारों में और कहीं-कहीं एक या दो दीवारों पर "करापाट" (प्रवेश द्वार) होता है। सत्र-परिसर के बहिर्भाग में भक्तों के लिए "हाटी" यानी वासगृह होता है। भक्त भी उदासीन (अविवाहित) और संसारी दो प्रकार के होते हैं।

सत्र परिसर में ही विद्यालय, पुस्तकलय, चिकित्सालय, रंगघर आदि होते हैं। सत्रों के भीतर ही व्यावसायिक दृष्टि से डोला, खटोला, खोल (मृदंग) जैसे वाद्यों के अलावा नैवेद्य-पात्र (शराइ), हाथी दाँत से बनी सामग्री बनाने के उद्योगों को विकसित किया जाता है। एक अंकीय नाट में नाट्याभिनय की पोशाक, विभिन्न शस्त्रास्त्र, मुखौटा, मुकुट, जटा, दाढ़ी-मूँछ आदि यहीं बनाये जाते हैं। सत्रों में वयन शिल्प, पुतला, हस्तकला के साथ ही अन्यान्य मृत्तिका उद्योग, लौह उद्योग, घानी उद्योग आदि की भी शिक्षा दी जाती है। सत्र के परिचालन के लिए ज्येष्ठ सत्राधिकरी तथा कनिष्ठ सत्राधिकरी के अलावा मजूमदार, मेधी, पाठक, भण्डारी आदि भिन्न-भिन्न अधिकारी होते हैं। प्राय: प्रत्येक सत्र के अन्तर्भाग में एक कुआँ और बहिर्भाग में एक पोखर होता है।

नामघर असम के गाँव-गाँव में हैं। ये मात्र नामघर या कीर्तनघर ही नहीं, ये तब से आज तक असमिया समाज-व्यवस्था के विशिष्ट उपादान बने हुए हैं। प्रजातन्त्र के सम्यक विकास के लिए जिस ग्राम पंचायत की परिकल्पना हमारे संविधान में है, उसे आज से पाँच सौ वर्ष पहले ही श्रीमन्त शंकरदेव ने नामघर के रूप में स्थापित कर दिया था। इन नामघरों में अविराम रूप से धर्म प्रचार के साथ-साथ गाँव की नाना समस्याएँ, वाद-विवाद सुलझाये जाते हैं, नीति-नियम का निर्धारण होता है। सामाजिक न्याय, कला एवं संस्कृति को साकार करने में नामघरों का अद्वितीय स्थान है।

यद्यपि सत्रों को तत्कालीन अनेक राजाओं की कृपा उपलब्ध थी, फिर भी शंकरदेव ने इन्हें राजनीति से मुक्त रखा। नामघरों के माध्यम से प्रचारित शंकरी संस्कृती का ही प्रभाव था जो मिशनरी कार्य करने सन् १८३५ में असम आये नाथन ब्राउन के धर्म-प्रचार के प्रलोभन में असमिया जनता नहीं आई।



संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान होने के उपरान्त भी शंकरदेव ने अपनी लेखकीय अभिव्यक्ति का माध्यम कामरूपी (असमिया) को ही बनाया। उल्लेखनीय है कि उनके समय असम और असमिया भाषा क्रमश: कामरूप और कामरूपी के नाम से जानी जाती थी। सम्पूर्ण शंकरी-वाङमय में "असम" नाम एक-दो बार ही आया होगा, वह भी आहोम-जाति वाचक शब्द के रूप में।

अपनी मातृभाषा कामरूपी को सर्वोपरि मानते हुए भी शंकरदेव ने यह अनुभव किया कि समस्त भारत को एक सूत्र में बांधने के लिए सर्वग्राही एक सम्पर्क भाषा होनी चाहिये। आज से पाँच सौ वर्ष पहले, और वह भी असम जैसे सुदूर प्रदेश में रहने वाले अहिन्दीभाषी द्वारा ऐसा सोचना उनकी दूरदर्शिता और राष्ट्रीयता का ही तो प्रमाण है।

विचारणीय बात है कि उनके समय असमिया भाषा प्रौढ़ हो चुकी थी। माधव कन्दली द्वारा "सप्तकाण्डी रामायण”, हेम सरस्वती द्वारा "प्रह्लाद चरित" और "हरगौरी-संवाद", हरिवर विप्र द्वारा "लव-कुशर युद्ध", "बभ्रुबाहन युद्ध" और "अश्वमेध पर्व" तथा रुद्र कन्दली द्वारा "द्रोण पर्व" और "सात्यकि-प्रवेश" आदि कई असमिया ग्रन्थ लिखे जा चुके थे।

इसके उपरान्त भी श्रीमन्त शंकरदेव ने अपने चिन्तन को कर्यान्वित करते हुए "सम्पर्क भाषा" के रूप में "ब्रजावली" नामक नई भाषा बनाई। ब्रजावली, जो तत्कालीन हिन्दी ही है- में उन्होंने अपना पहला गीत लगभग सन् १४८९ में "मन मेरि राम चरणहि लागु" अपनी बदरीनाथ-यात्रा में रचा। इस भाषा में उन्होंने अनेक गीतों तथा नौ नाटकों की रचना की। शंकरदेव ब्रजावली के जनक होने के नाते, इसके प्रथम साहित्यकर ही नहीं, बल्कि प्रथम गद्यकार भी हैं।

उनके सामने हालांकि ऐसी भी कोई विवशता नहीं थी कि तथाकथित "कृत्रिम भाषा" ब्रजावली का प्रयोग करते। वस्तुत: इसके पीछे उनका निहितार्थ भारत को "बृहत्तर भाषाई" आधार प्रधान करना ही था। उस समय नेपाल, बिहार, बंगाल, उड़ीसा समेत देश के लगभग पूरे पूर्वी भाग में ब्रज-मैथिली मिश्रित या इनसे मिलती-जुलती भाषाओं का ही प्रचलन था। यह भाषा असमिया लोगों के लिए भी कठिन न थी।



शंकरदेव ही पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने असम में नाटकों का सूत्रपात किया। उनके द्वारा लिखित, निर्देशित, अभिनीत सात अंकीय नाटक "चिह्न यात्रा" का प्रथम अभिमंचन स्वयं उन्होंने ही किया था। उस नाटक का लगातार सात दिनों, नित्य एक-एक अंक का मंचन चलता रहा। उन्होंने अपने नाटकों में गीतात्मकता बनाये रखने के लिए संगीत की महत्त्वपूर्ण भूमिका रखी। तभी तो उनके उपलब्ध छह नाटकों में एक सौ अस्सी संस्कृत-श्लोक, एक सौ बीस गीतों के अलावा भटिमा और पयार पद्य हैं, सो अलग। साथ ही उन्होंने सूत्रधार का नवीनीकरण कर उसकी उपस्थिति पूरे नाटक में बनाये रखी। उनके नाटकों के सूत्रधार और अभिनेता ब्रजावली गद्य में लिखे कथोपकथन का प्रयोग लयात्मक रूप में करते हैं।

उनके नाटकों के कुछ अंश पुस्तक के परिशिष्ट में दिये गये हैं। साथ ही पाँच सौ साल पहले की पत्र-लेखन शैली का पता "रुक्मिणी-हरण" नाटक में रुक्मिणी द्वारा श्रीकृष्ण को लिखे गये पत्र से चलता है। नाटकों में प्रयोग की गई गद्यात्मक और पद्यात्मक ब्रजावली को समझना हिन्दी के सुधी पाठकों के लिए विशेष दुष्कर नहीं।

उनके नाटकों का मूल उद्देश्य श्रीकृष्ण भक्ति के माध्यम से एकशरण धर्म का प्रचार कर लोगों में नव चेतना जगाना था। इसलिए उन्होंने प्रेक्षकों को नाटक से जोड़े रखने के लिए अपने सूत्रधार से बार-बार कहलवाया- "देखह शुनह; निरन्तरे हरि बोल हरि" (देखो सुनो; निरन्तर हरि बोलो हरि)। दर्शक भी नाटक के साथ एकाकर होकर सूत्रधार के संग "हरि बोल हरि" के उद्घोष दोहराते।

यह भी उल्लेखनीय है कि "चिह्न यात्रा" के बहुत बाद, शेक़्सपीयर के नाटक का पहला मंचन इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ के सम्मुख सन् १५६२ में किया गया था। यह तथ्य नितान्त भ्रामक और हमारा अँग्रेजों का पिछलग्गू होने का द्योतक भी है कि विश्व में शेक़्सपीयर लिखित नाटक का सर्वप्रथम मंचन हुआ था; जबकि भारत में तो संस्कृत नाटकों के मंचन की पुरातन परम्परा रही है।

शंकरदेव असम के सिरमौर हैं। उन्हें यहाँ की भूमि पर प्रवहमान लोहित का मानसपुत्र कहना सम्यक ही है, क्योंकि उनके अस्तित्व के बिना असमिया संस्कृति एवं साहित्य-संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में ये असम के ही नहीं, सम्पूर्ण भारतवर्ष के ही नहीं, अपितु विश्व के प्राचीन सन्त, साहित्यकार तथा लोकनायक के रूप में पंक्तिबद्ध किये जाने चाहिये।



अन्तस् को यह बात सालती रहती थी कि शंकरदेव जैसे विराट बहुमुखी व्यक्तित्व के बारे में पूरा देश अनभिज्ञ क़्यों है ? शंकरदेव जैसे राष्ट्रीय सन्त का व्यक्तित्व असम की सीमा में ही अबद्ध होकर क़्यों और कैसे रह गया ? इसमें कदाचित हमारी ही भूल है। असमवासी होने के नाते यही बेचैनी मुझे उनकी जीवनी लिखने के लिए उत्प्रेरित कर रही थी। किन्तु मन ने प्रश्न किया, मैं स्वयं उनके बारे में सतही बातों के सिवाय कितना जानता हूँ ? उन्हें जानने के लिए उन पर असमिया में लिखा साहित्य कई वर्षों तक अध्ययन करता रहा। मन ने कहा, इसे गुवाहाटी में बैठकर ही लिखा जा सकता है। लिखते समय बहुत-सी कठिनाइयाँ भी आईं। कितने ही लगातार महीने तो तथ्य खोजने में ही निकाल गये। फिर भी बात नहीं बन रही थी। जी चिड़चिड़ाया, एकाकीपन ने कचोटा, कथा का कोई सूत्र नहीं पकड़ पा रहा था। असमंजस में था कि कहाँ से और कैसे इसे लिखना प्रारम्भ करूँ।

शंकरदेव के परवर्ती भक्तों द्वारा लिखे गये गुरु-चरितों में मत-भिन्नताएँ हैं। गुरु-चरितों के आधार पर स्व. लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा और स्व. महेश्वर नेओग द्वारा गवेषणात्मक रूप से असमिया में अलग-अलग लिखे गये "श्रीश्रीशंकरदेव" चरित्रों को पढ़ा। उनमें विभिन्न चरितकरों के अलग-अलग मत दिये हुए हैं। मेरे लिए समस्या थी कि उनमें से किसे मैं सही मानता और किसे नकारता। एक बार तो इतना हताश हुआ कि जीवन-वृत्त लिखने का यह विचार ही छोड़ दिया।

इस बीच असमियाभाषी हिन्दी लेखक डॉ. देवेन दास "सुदामा", जो मेरे पुराने परिचित हैं, से मिलकर अपनी समस्या बताई। उन्होंने कहा कि वे भी हिन्दी में शंकरदेव की जीवनी लिख रहे हैं और इस काम में मेरी सहायता करेंगे। उन्होंने मेरा उत्साह बढ़या। इसके लिए मैं इनका हृदय से आभारी हूँ।

नया उत्साह जुटाकर मैंने शंकरदेव पर असमिया में लिखे तीन जीवनीपरक उपन्यास "जाकेरि नाहिके उपाम" (लेखक : श्री लक्ष्मीनन्दन बोरा), "सर्वगुणाकर" (लेाखिका : डॉ. निरुपमा महन्त) और "धन्य नर तनु भाल" (लेखक : स्व. सैयद अब्दुल मलिक) बड़ी मेहनत से दोबारा-तिबारा पढ़े, क्योंकि असमिया पर मेरा पूरा अधिकार नहीं है। हिन्दी माध्यम की स्कूल में पढ़ी असमिया ही मेरे काम आई और असमवासी होने क लाभ भी मुझे मिला।

श्री लक्ष्मीनन्दन बोरा का उपन्यास "जाकेरि नाहिके उपाम" अर्थात "जिनकी नहीं है कोई उपमा", पढ़कर मैंने निर्णय लिया कि इस विद्वान लेखक ने जिन तथ्यों को सही मानकर अपनी पुस्तक लिखी है, उन्हीं को आधार बनाकर मुझे आगे बढ़ना चाहिये। फिर मैं व्यक्तिगत रूप में माननीय श्री लक्ष्मीनन्दन जी बोरा से मिलने गुवाहाटी स्थित उनके घर गया। उन्हें अपनी इच्छा बताई। उन्होंने मेरा उत्साहवर्धन करते हुए कहा, "मैंने भी यह उपन्यास लिखने के लिए अनेक पुस्तकों और गुरु-चरितों की सहायता ली है। पाँच सौ साल पहले हुए उस विराट व्यक्तित्व के बारे में जानने का इससे सुगम साधन और क़्या होगा ! वाल्मीकि रामायण के आधार पर भारतीय-भाषाओं में विभिन्न लेखकों द्वारा अनेक रामायणें लिखी गई हैं या नहीं ? कथ्य तो सबके एक ही हैं।” वयोवृद्ध श्री लक्ष्मीनन्दन जी बोरा के आशीर्वाद के साथ उनकी यह अनुमति भी मिल गई कि उनके उपन्यास से चाहूँ तो घटनाक्रम भी ले सकता हूँ। इस सुहृदयता के लिए मैं इनका चिर कृतज्ञ हूँ।

मैंने जानकारियाँ जुटा कागज पर टिपण्णियाँ लिखी। शंकरदेव के समय के ऐतिहासिक परिवेश को समझा। उनके एक सौ उन्नीस वर्षीय जीवनकाल (सन् १४४९-१५६८) में छह आहोम राजाओं ने शासन किया था। वे थे- सुसेन्फा (सन् १४३९-१४८८), सुहेन्फा (सन् १४८८-१४९३), सुपिम्फा (सन् १४९३-१४९७), सुहुंग्मुंग या दिहिंगिया राजा (सन् १४९७-१५३९), सुक्लेनमुंग या गढ़गयाँ राजा (सन् १५३९-१५५२) और सुखाम्फा या खोरा राजा (सन् १५५२-१६०३)। साथ ही असम का यात्रा-वृत्तान्त "ब्रह्मपुत्र के किनारे किनारे" पुस्तक लिखने का अनुभव भी मेरे काम आया।

अब तक मेरा परिचय "एकशरण भागवती समाज" के अध्यक्ष श्री दयालकृष्ण बोरा से हो गया जिनका शंकरदेव पर अच्छा अध्ययन है। वे अपनी मातृभाषा असमिया की तरह हिन्दी भी सहज रूप में न केवल पढ़ लेते हैं अपितु समझ भी लेते हैं। कई दिनों से श्रीमन्त शंकरदेव के जन्म-स्थान बरदोवा जाने का विचार कर रहा था। यह बात श्री दयालकृष्ण बोरा को बताई तो वे साथ चलने के लिए सहर्ष तैयार हो गये। कई वर्षों बाद नये उत्साह के साथ मेरी दोबारा बरदोवा-यात्रा हुई। बरदोवा-सत्र में उस हरितकी (हर्रे वा हरड़) वृक्ष के तले कुछ क्षण बिताये जिसे शंकरदेव के समय का बताया जाता है। वृक्ष से ताजा झरे हरितवर्णी हरितकी फल को गुरु शंकर का प्रसाद समझकर खाया, कदाचित् कोई प्रेरणा-ऊर्जा ही मुझे प्राप्त हो जाये।

इसी बीच अग्रज तुल्य मित्र श्री ओमप्रकाश गोयनका और उनके परिवार के साथ मुझे बरपेटा शहर स्थित शंकरदेव की कर्मस्थली पाटबाउसी, गणककुची, सुन्दरीदिया सत्रों, जो पास-पास ही हैं, जाने का सुअवसर मिला। पाटबाउसी के भव्य सत्रों में गुरुआनी कालिन्दी का कक्ष, उनके पलंग के अलावा शंकरदेव द्वारा काम में लायी गई वस्तुएँ, साँचिपातों पर लिखी पाण्डुलिपियाँ, काठ के बने मुखौटे आदि देखने को मिले। साथ ही अन्यान्य बातें जानने का लाभ मिला, सो अलग। सत्र में पाँच सौ वर्ष पहले महापुरुष माधवदेव द्वारा प्रज्ज्वलित अखण्ड दीपक के दर्शन कर मैंने अपने को सौभाग्यशाली माना।

नवीन उत्साह-प्रेरणा से लेखन प्रारम्भ किया। बात धीरे-धीरे बनती गई। किन्तु शंकरदेव की बारह वर्षीय (सन् १४८१-१४९३) यात्रा लिखते समय लेखनी फिर अटक गई। गुरु-चरितों में यात्रा-स्थलों के नाम मात्र मिलते हैं, परन्तु भौगोलिक मार्ग कहीं नहीं। उपरोक्त तीनों उपन्यासों में भी कुछ एक स्थलों के नाम भर ही हैं।

मैंने उनकी यात्रा का ताना-बाना बुनने का मन बनाया। अपनी छात्रावस्था में की गई भारत-यात्रा पर लिखी पुस्तक "थोड़ी यात्रा थोड़े कगज" शंकरदेव की यात्रा को रचने में मेरा सम्बल बनी। भारत का मानचित्र देखकर मैंने उनके सम्भावित यात्रा-पथ का अनुमान लगाया। कालखण्ड का मिलान किया। उनके बदरीनाथ-प्रवास के समय असम में माधवदेव का जन्म हुआ था। वे शंकरदेव से चालीस वर्ष छोटे थे। शंकरदेव ने बत्तीस वर्ष की अवस्था में यात्रा आरम्भ की थी अर्थात् बदरीनाथ पहुँचने के पहले वे आठ वर्ष तक यात्रा कर चुके थे। आखिर यात्रा-तथ्यों के अभाव में अनुमान ही एकमात्र विकल्प था।

इसके लिए शंकरदेव के समकालीन भारत में हुए सन्त महापुरुषों की जानकरी की। वे थे- सन्त रैदास (सन् १३७६-१५२७), सन्त कबीर (सन् १३९८-१५०२), भक्त नरसी मेहता (सन् १४१३-१४७९), गुरु नानकदेव (सन् १४६९-१५३९), वल्लभाचार्य (सन् १४७८-१५८५), भक्त सूरदास (सन् १४७८-१५८०), चैतन्य महाप्रभु (सन् १४८५-१५३३), सन्त तुलसी दास (सन् १४९७-१६२३), भक्तिन मीरा बाई (सन् १५०४-१५४८)। हालाँकि इनमें से किसी से भी शंकरदेव का मिलन नहीं हुआ, परन्तु उनकी यात्रा लिखते समय इनके समय का ध्यान रखना आवश्यक था। ऐसा भी प्रवाद है कि चैतन्य महाप्रभु से उनकी भेंट हुई थी। किन्तु तर्क पर यह बात खरी नहीं उतरती। ऐसा ही प्रवाद नानकदेव के बारे में भी है। यह भी सच है कि नानकदेव का आज के असम, अरुणाचल और मणिपुर में आगमन हुआ था परन्तु दोनों का मिलन हुआ या नहीं, इसका कोई ठोस साक्ष्य मुझे नहीं मिला। इसके साथ ही शंकरदेव की पूर्ववर्ती सन्त-परम्परा को भी जाना-समझा।

इसी बीच साहित्यिक मित्र श्री किशोर कुमार जैन ने मेरा परिचय "शंकरदेव सचेतन मंच" के सचिव श्री प्रभात दास तथा अध्यक्ष श्री डालिम पाठक से करवा दिया। श्री प्रभात दास भी अपनी मातृभाषा असमिया की तरह हिन्दी पढ़ लेते हैं। उन्होंने शंकरदेव के यात्रा-स्थलों की प्रामाणिक जानकारी न केवल जुटा कर मुझे दी, अपितु कई बार विचार-विमर्श करने हेतु काकी समय भी दिया। इसके लिए मैं श्री प्रभात दास का हृदय से कृतज्ञ हूँ।

कथा में शंकरदेव से जुड़े अधिकांश पात्र वास्तविक हैं, लेकिन करीब डेढ़ सौ पृष्ठों में लिखी गई शंकरदेव की भारत-यात्रा (चरैवेति चरैवेति) में मिले पात्रों के नाम कल्पित हैं। चूँकि यह एक महापुरुष की जीवनगाथा है, मैंने उपलब्ध तथ्यों को ही पुस्तक में समाहित किया है, कपोल-कल्पना करने की धृष्टता कहीं नहीं की।

विद्वानों में "चिह्न यात्रा" के लेखन-अभिमंचन के समय को लेकर मत-भिन्नताएँ हैं। कुछ का कहना है कि "चिह्न यात्रा" का लेखन-मंचन शंकरदेव ने अपनी तीर्थ यात्रा से लौटने के बाद लगभग सन् १५०६ में किया। किन्तु डॉ. देवेन दास, श्री दयालकृष्ण बोरा और श्री प्रभात दास एकामत से "गुरु-चरितों" में लिखे इस मत पर दृढ़ प्रतिज्ञ हैं कि गुरुकुल से लौटने के बाद ही शंकरदेव ने अपने घरवालों और बरदोवावासियों के आग्रह पर करीब सन् १४७० में "चिह्न यात्रा" का लेखन-मंचन किया था। पुस्तक में इसी मत को लिखा गया है।


शंकरदेव की रचना "कीर्तन-घोषा" के बारे में भी कुछ तथ्य जानने आवश्यक हैं। यह नाम उनका दिया हुआ नहीं है। उनके परलोक गमन के पश्चात् उनके शिष्य माधवदेव ने अपने शिष्य और भानजे (गयापाणि और उर्वशी के पुत्र) रामचरण ठाकुर जो कि सुन्दरीदिया सत्र में रहते थे, को शंकरदेव द्वारा विभिन्न समयों में विभिन्न खण्डों में लिखी गई समस्त रचनाओं को बरदोवा, गांमौ, धुवाहाटा आदि स्थलों से खोजकर कोच राज्य में लाने को कहा था। शंकरदेव लिखित उरेषा वर्णन, अजामिल उपाख्यान, प्रह्लाद चरित्र, हरमोहन, बलि-छलन, गजेन्द्र उपाख्यान, ध्यान-वर्णन, पाषण्ड-मर्दन, नामापराध, शिशुलीला, कालिय-दमन, रास-क्रीड़ा, कंस-वध, गोपी-उद्धव संवाद, कुजीर वांछा पूरण, अक्रूरर वांछा पूरण, चतुर्विंशति अवतार वर्णन, जरासंध युद्ध, कालयवन वध, मुचुकुन्द स्तुति, स्यमन्तक हरण, नारद-कृष्ण दर्शन, विप्र-पुत्र अनयन, देवकीर पुत्र अनयन, वेद-स्तुति, लीलामाला, रुक्मिणीर प्रेम कलह, भृगु परीक्षा, श्रीकृष्णर बैकुण्ठ-प्रयाण और भागवत तात्पर्य को एक ग्रन्थ में संकलित किया था। आज उपरोक्त रचनाएँ असम में "कीर्तन घोषा" के नाम से ही जानी जाती हैं।

साँचिपातों पर लिखी शंकरदेव और माधवदेव की रचनाएँ प्रथम बार सन् १८७६ में प्रेस में छपीं। यह स्तुत्य कार्य तेजपुर निवासी हरिविलास अगरवाला (रूपकुँवर ज्योतिप्रसाद अगरवाला के पितामह) ने किया। उन्होंने रचनाओं को स्थान-स्थान से खोजा और स्वयं कोलकाता ले गये। उन्हें वहाँ के प्रेस में छपवाकर असमिया जनता में नि:शुल्क वितरित किया।

शंकरदेव ने अपने गीतों को कभी "बरगीत" नहीं कहा। उनके बाद ही इन्हें बरगीत यानी दिव्यगीत कहा गया। प्रस्तुत पुस्तक उनके साहित्य का आकलन-विवेचन करने के उद्देश्य से नहीं, जिसकी इस लेखक में क्षमता भी नहीं, बल्कि इस महापुरुष को हिन्दी जगत से परिचित कराने के प्रयोजन से लिखी गई है। शंकरदेव का असमिया में रचा गया अधिकतम रचना-संसार भागवत तथा अन्य पुराणों पर आधारित है जिनकी कतिपय बानगियों को पुस्तक में जगह-जगह देने का लघु प्रयास किया गया है। यह भी सच है कि इन बानगियों को उस विशाल व्यक्तित्व के कृतित्व को समझने के लिए संकेत मात्र ही कहा जा सकता है।

गुवाहाटी विश्वविद्यालय में हिन्दी के रीडर और मणिपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे डॉ. कृष्ण नारायण प्रसाद "मागध" द्वारा शंकरी साहित्य पर लिखित और पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला द्वारा सन् १९७६ में प्रकाशित साहित्यिक विवेचनात्मक विस्तृत ग्रन्थ "शंकरदेव : साहित्यकर और विचारक" के कुछ अंशों को यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा। यह पुस्तक आज अप्राप्य है जिसे हिन्दी-असमिया के विद्वान और लेखक-प्रचारक वयोवृद्ध श्री चित्र महन्त ने अपने पास से उपलब्ध करवाया। इसके लिए महन्त महोदय का मैं सदैव ऋणी रहूँगा।

उपरोक्त पुस्तक में डॉ. कृष्ण नारायण प्रसाद "मागध" लिखते हैं- "शंकरदेव का तथाकथित विशाल अनूदित साहित्य एक सोद्देश्य उपलब्धि है, मूल का अनुवाद मात्र नहीं। उसे अनुवाद की अपेक्षा, स्वतन्त्र व्याख्या कहना अधिक संगत है। विभिन्न वैष्णव पुराणों और शास्त्रों के अध्ययन-आलोड़न के पश्चात् "भागवत" को आधार मानकर कवि घटनाओं-प्रसंगों की योजना-व्याख्या बहुत कुछ स्वतन्त्र रूप में करता चलता है। इनमें वह व्यास का पिछलगुआ भर नहीं, स्वयं व्यास भी है। भागवतीय कथाओं को उसने एक नये काव्य रूप-हरिकथा-में ढालकर मौलिक रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। यही कारण है कि असमिया वैष्णव-समाज में शंकरदेव कृत "महाभागवत" मूल भागवत की व्याख्या और अनुवाद के साथ-साथ मौलिक कृति के रूप में भी मान्य है। कवि की भक्ति और दर्शन सम्बन्धी मान्यताओं को समझने-समझाने की दृष्टि से उसकी उपयोगिता तो है ही, उसके आधार पर कवि-कर्म और कवि-व्यक्तित्व का मूल्यांकान करना भी बेमानी नहीं होगा। उनका उद्देश्य अनुवाद-साहित्य प्रस्तुत करना नहीं, वरन् एकशरण भक्तिधर्म के अनुरूप मौलिक साहित्य निर्माण करना था।”

शंकरदेव की भक्ति के दास्यभाव को निरूपित करते हुए "मागध" एक स्थान पर उसी पुस्तक में लिखते हैं- "शंकरदेव के काव्य में दास्यभाव के पद केवल मिलते ही नहीं, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है मानो उस पर उनका एकाधिकर-सा है। उनकी समस्त रचनाओं में दास्यभाव ही सर्वप्रधान है। उन्होंने सेवक की दीनता के जितने अतिरंजित चित्र अंकित किये, उतने ही उसे चमत्कृत आकर्षित करने वाले स्वामी के वैभव-पराक्रम वाले भी। सम्पूर्ण रचना को सरसरी दृष्टि से देखने से ही विदित हो जाता है कि उन्होंने "श्रीमद्भागवत" के वैसे ही स्थलों और प्रसंगों को अपनी कविता का विषय बनाया है जिनमें भगवान् की विराटता, अलौकिकता इत्यादि के साथ-साथ उनकी अतुलनीय शक्ति और रक्षणशीलता का चमत्कारिक वर्णन किया गया है। कृष्ण के द्वारा सम्पन्न होने वाले अलौकिक कृत्यों से व्रजवासी क्षण-क्षण चमत्कृत और आकर्षित होते हैं एवं उनकी स्तुति-वन्दना करने लगते हैं। वस्तुत: शंकरदेव कृष्ण के नयनाभिराम रूप एवं पूतना, शकटासुर, तृणावर्त, वत्सासुर, बकासुर, धेनुकासुर, प्रलम्बासुर, शंखचूड़, अरिष्टासुर, केशी, व्योमासुर इत्यादि के वध और गोवर्धन-धारण आदि की कथाओं से उनकी अद्वितीय शक्ति तथा यशोदा द्वारा कृष्णमुख में विश्वदर्शन, ब्रह्मा द्वारा बाल-वत्स-हरण किये जाने पर कृष्ण द्वारा अनुरूप बाल-वत्स रूप धारण, नन्द-उद्धार, रास-क्रीड़ा में अन्तर्धान होने, कालियदमन, वनाग्नि-पान इत्यादि के वर्णन द्वारा उनकी अलौकिकता का प्रकाशन कर भक्तों को सर्वत्र अभिभूत करते हैं। ऐसे अनिर्वचनीय सौन्दर्य से मण्डित एवं अलौकिक शक्ति-सम्पन्न प्रभु के चरणों को एकमात्र शरणस्थल मानकर वे अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं।”

आज डॉ. कृष्ण नारायण प्रसाद "मागध" जैसे हिन्दी विद्वानों की आवश्यकता है जो शंकरदेव के दर्शन और काव्यात्मक भाषा, शैली, शब्द-अलंकार आदि का अध्ययन-मनन कर हिन्दी में लिख सकें।

इसके लिए असमियाभाषी समाज से भी निवेदन करना चाहूँगा कि यदि वह शंकरदेव के समग्र साहित्य को मात्र देवनागरी में लिप्यन्तरण भर ही करा दें तो हिन्दी के शोधकर्ताओं को इन पर काम करने की प्रेरणा मिलेगी।





पुस्तक-लेखन प्राय: पूरा हो चुका था, पर इसका अन्तिम अध्याय "महाप्रयाण" नहीं लिख पा रहा था। बार-बार अन्त:प्रेरणा हो रही थी कि एकबार शंकरदेव की प्रयाण-स्थली मधुपुर-सत्र चलना चाहिये। डॉ. देवेन दास "सुदामा" को साथ चलने को पूछा तो वे सहर्ष तैयार हो गये। रेल से तड़के चार बजे तोरषा किनारे बसे कोचविहार (आज का कूचबिहार) पहुँचे। यही नगर कोच राजवंशी महाराज नरनारायण की राजधानी थी। इसके साथ यह जानना भी रुचिकर होगा कि इसी वंश में आगे जाकर, कुछ ही दिनों पहले दिवंगत हुई जयपुर की महारानी गायत्री देवी जन्मी थीं और उनके पूर्वजों का ब्रिटिश काल में बनाया गया भव्य राजप्रासाद आज भी नगर के मध्य खड़ा है।

कोचाविहार से सात-आठ किलोमीटर दूर स्थित मधुपुर के भव्य द्वार से सत्र में प्रवेश किया। वहाँ शंकरदेव की पुण्य-तिथि मनाने की तैयारियाँ चल रही थीं। यह संयोग मात्र ही था कि हम उनकी ४४१वीं पुण्य तिथि भाद्रपद शुक्ल द्वितीया (२२ आगस्त २००९) को वहाँ पहुँचे। सत्र के भक्त यतीन्द्रनाथ कृष्णराय यह जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए कि मैं राष्ट्रीय भाषा हिन्दी में शंकरदेव की जीवनी लिख रहा हूँ। उनके आशीर्वाद के रूप में मानो गुरु का आशीष ही मिल गया। कुछ घण्टे सत्र में रहकर तोरषा नदी देखने गये जिसके किनारे शंकरदेव का अन्तिम-संस्कार हुआ था। वहाँ कुछ क्षण बिताकर जैसे नई प्रेरणा प्राप्त की।



पुस्तक में देवनागरी लिप्यन्तरण उसी तरह किया गया जैसे वह असमिया में लिखी जाती है। हमारी भारतीय भाषाओं की लिपियाँ अलग-अलग होने से हम इन्हें पढ़ नहीं पाते, जिससे हमारी भाषाई दूरी बढ़ती है, जबकि हमारी उत्तर भारतीय भाषाओं के साथ-साथ दक्षिण भारतीय भाषाओं की वर्णमालाएँ भी एक ही हैं। केवल तमिल वर्णमाला में कुछ व्यंजन अक्षरों का प्रयोग नहीं होता।

असमिया में भी बांग्ला की तरह व्यंजन अक्षरों की उच्चारण-ध्वनि ऐसे लगती है जैसे इनके साथ "ओ" जोड़ दिया गया हो। इसलिए "क ख ग" आदि समस्त व्यंजनों की ध्वनि "को खो गो" जैसी होती है।

हिन्दी में अनुनासिक अक्षर- ङ्, ञ्, ण्, न् और म् के बदले बिन्दु लगाकर अंक, चंचल, तांडव, तंत्र, संबंध आदि लिखने का प्रचलन चल पड़ा है, जबकि असमिया में इन्हें अङ्क, चञ्चल, ताण्डव, तन्त्र, सम्बन्ध ही लिखा जाता है। देवनागरी लिप्यन्तरण करते समय मूल भाषा की शैली ही अपनाई गई है। इसी प्रकार असमिया में दो "य" होते हैं। ये यम, युग का उच्चारण जम, जुग करते हैं, परन्तु "य" उच्चारण करने के लिए "य" के नीचे बिन्दु (नुक्ता) लगाते हैं। इसलिए लिप्यन्तरण में सम्भवतया ऐसी गलतियाँ हुई हों। असमिया के सुधी पाठकों को यदि ऐसी गलतियाँ मिलें तो वे मुझसे अनजाने में हुई गलती मान कर क्षमा करेंगे।

असमिया में "च" एवं "छ" का उच्चारण "स" के समान होता है। "न" और "ण" के उच्चारण में अन्तर नहीं है, दोनों का उच्चारण "न" के समान होता है। दन्त्य और मूर्द्धन्य ध्वनियों में भी भेद प्राय: नहीं होता, "त" एवं "ट" क उच्चारण प्राय: "ट" के समान होता है। उष्म ध्वनियों- "श ष स" का उच्चारण शब्दारम्भ में "ह" और "ख" के बीच की ध्वनि के समान परन्तु अन्य स्थलों पर "ह" के समान होता है। उदाहरणार्थ "सन्तोष", "सहज", "असमीया", "कृषक", "सोमवार" जैसे शब्दों को लिखेंगे "सन्तोष", "सहज", "असमीया", "कृषक", "सोमवार" ही, परन्तु बोलने में "हन्तोख्", "हहोज", "अखमीया", "कृखोक", "खोमबार" जैसी-सी ध्वनि का उच्चारण करेंगे। इस उच्चारण दोष के चलते कहावत है कि असमिया ब्राह्मणों का दिया "शतायु" आशीर्वाद यजमान को "हतायु" के रूप में मिलता है। अस्तु, किन्तु संयुक्ताक्षरों में "श् ष् स्" एवं "च् छ्" का उच्चारण इसी रूप में यानी "श् ष् स्" एवं "च् छ्" ही होता है। इसी तरह "क्ष" का उच्चारण "क़्ख" या "ख्य" के समान होता है।

कुछ शब्दों का असमिया-हिन्दी दोनों में प्रयोग होता है, परन्तु थोड़े से अलग-अलग अर्थ में। "श्रीमन्त" शब्द असमिया में प्रज्ञावान व्यक्ति के लिए भी विशेषण-रूप में प्रयोग होता है, जबकि हिन्दी में इसका प्रयोग किसी ऐश्वर्यशाली या धनाढ्य व्यक्ति के लिए किया जाता है। इसी तरह "शिल्पी" शब्द असमिया में सभी कलाकरों के अर्थ में है, जबकि हिन्दी में हस्तशिल्प-कार्य करने वाले को ही शिल्पी कहा जाता है।

हिन्दी के "का", "की" तथा "के" की जगह असमिया में "र" प्रयोग होता है, उदाहरणार्थ "राम का", "राम की" या "राम के" के लिए असमिया में बस "रामर" ही लिखना यथेष्ट है। "में" और "पर" के अर्थ में "त" जोड़ते हैं, जैसे "दिनत" (दिन में), "कालत" (काल में), "पाहारत" (पड़ाड़ पर)। इसी प्रकार "ही" तथा "भी" के लिए "इ" तथा "ओ" जोड़ेंगे, जैसे "रामइ" (राम ही) और "रामओ" (राम भी)। इन साधारण सूचनाओं से हम किसी भाषा को तो नहीं सीख सकते, परन्तु भारतीय भाषाओं के समानता-गुण की जो विशिष्टता है, उसका तनिक लाभ तो हम उठा ही सकेंगे।



गुवाहाटी में पाण्डुलिपि की तथ्यात्मक बातों को जांचने के लिए श्री दयालकृष्ण बोरा, डॉ. देवेन दास "सुदामा" और श्री प्रभात दास ने वक्त निकालकर समय-समय पर मेरी सहायता की। अपने लिखे को बार-बार पढ़ने के लिए वनवासी क्षेत्र के आजीवन कार्यकर्ता और मेरे मित्र श्री भरत कुमार अग्रवाल को मैंने अनेक बार कष्ट दिया। इनके अलावा डॉ. बालकृष्ण जालान, श्री ओंकर पारीक, श्री नटवर शर्मा को भी पढ़ाता रहा। डॉ. कृष्ण गोपाल, डॉ. धर्मदेव तिवारी, श्री ओंकर शर्मा, श्री सत्यानन्द पाठक, श्री विनोद रिंगानिया, श्री रामानिरंजन गोयनका, श्री कपूरचन्द जैन, श्री राजकुमार जैन, श्री किशोर कुमार जैन, श्री रविकान्त "नीरज", श्री आत्माराम बजाज, श्री आशोक खोवाला और श्री किशन जालान ने भी इसके अंश पढ़े। संस्कृत-हिन्दी के विद्वान मिजौभाषी श्री रमथङ्आ खोलाह्रिङ् ने इसे पढ़कर अपने सुझाव दिये जिसके लिए इन सभी महानुभावों का मैं हृदय से चिर कृतज्ञ हूँ।

अपने मुम्बई-प्रवास में पाण्डुलिपि साहित्यिक मित्रों को दिखाकर उनकी राय ली। उनके लिए "शंकरदेव" एक नया व्यक्तित्व था। इसलिए उनका मन्तव्य जानना मेरे लिए अति महत्त्वपूर्ण था। श्री जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, श्री राकेश शर्मा, श्री शैलेश सिंह, श्री हरि मृदुल, डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय, डॉ. केशव फाल्के, श्रीमती सुलभा कोरे, श्री श्रीकान्त जोशी, श्री वीरेन्द्र याज्ञिक और श्री पूरण पंकज ने मनोयोग से इसे देख-पढ़कर मुझे आश्वस्त किया। श्री राकेश शर्मा ने इसे आद्योपान्त पढ़कर अपने सुझाव भी दिये। इनके साथ श्री आलोक भट्टाचार्य ने भी इसे अन्तिम रूप से पढ़कर कई सुझाव दिये जिससे इसकी रही-सही कमियाँ भी दूर हो गईं। बांग्लाभाषी होने के कारण श्री आलोक भट्टाचार्य की असमिया संस्कृति से स्वाभाविक निकटता है जिसका लाभ इस पुस्तक को मिला। इसके लिए मैं इन सभी महानुभावों का हृदय से अत्यन्त आभारी हूँ।

पुस्तक में उद्धॄत संस्कृत श्लोकों में मैंने बहुत-से असमिया पुस्तकों से भी लिये हैं। उनकी शुद्धता को जांचने में मैं सर्वथा अक्षम हूँ। अनुजसम श्री कृष्ण गोयनका ने इसमें सहयोग किया। इसके लिए मैं इनका आभारी हूँ।

गुवाहाटी में जब-जब मेरे कम्प्यूटर में यान्त्रिक बाधा आई, तब-तब असमियाभाषी श्री त्रिदीप कलिता और श्री नारायणदेव शर्मा ने बड़े मनोयोग से उसे सुधार कर मेरी सहायता की। बहुत मनुहार करने पर भी उन्होंने यह कहकर पारिश्रमिक तक नहीं लिया कि "आप तो हमारे शंकरदेव पर ही काम कर रहे हैं।" मैं इनकी भावना से अभिभूत हूँ और इनके प्रति कृतज्ञ भी। नई मुम्बई स्थित "असम भवन" के आवसीय उपायुक्त श्री देवाशीष शर्मा ने भी समय-समय पर मेरी सहायता की जिसके लिए इनका भी आभारी हूँ।

भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कृत असमिया की प्रसिद्ध लेाखिका श्रीमती इन्दिरा रायसम गोस्वामी, जिन्हें हम असमवासी सम्मान से "मामेनी बाइदेव" कहते हैं- ने अपनी अस्वस्थता और व्यस्तता के उपरान्त समय निकाल कर पाण्डुलिपि पढ़ी तथा प्रस्तावना लिख कर दी। इसके लिए मैं इनका हृदय से अत्यन्त आभारी हूँ।

"हेरिटेज फाउण्डेशन”, गुवाहाटी ने पुस्तक-प्रकाशन करने की न केवल सहमति दी, अपितु सुलभ मूल्य पर पाठकों को उपलब्ध कराकर शंकरदेव के महान चरित्र को अखिल भारतीय पहचान दिलाने एवं राष्ट्रीय एकात्मता हेतु स्तुत्य कार्य किया है। इसके लिए मैं "हेरिटेज फाउण्डेशन" संस्थान का अत्यन्त आभारी हूँ।

पुस्तक का आवरण पृष्ठ बनवाने में श्री समीर ताँती और श्री किशन जालान का मुझे सहयोग मिला और उनके मित्र श्री रोबीन बरुवा ने इसे बनाकर दिया जिसके लिए मैं इन सबका हृदय से आभारी हूँ।

यह पुस्तक मैंने किसी विधा विशेष में नहीं लिखी है। इसकी भाषा-शैली तथा मुझ से अज्ञान में हुई भूलों का आकलन तो सुधी पाठक ही करेंगे। बहुत सम्भव है कि शंकरदेव के जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू मुझसे छूट गये हों, फिर भी मेरा भरसक प्रयास रहा कि उनके व्यक्तित्व को पूर्णता के साथ पाठकों के समक्ष रख सकूँ। अन्त में यही निवेदन करना चाहूँगा कि शंकरदेव जैसे विशाल व्यक्तित्व की झलक मात्र ही इस पुस्तक में आ पाई है; उनके कृतित्व की तो कतई नहीं। अब यह जैसी भी बन पड़ी है, आपके हाथों में है।

---सांवरमल सांगानेारिया

विजया दशमी, विक्रम संवत् २०६६

(शंकरदेव की ५६१वीं जन्म-तिथि)

२८ सितम्बर २००९